दिल्ली : मोदी और उनकी टीम एक ऐसी विरासत को हथियाने के खेल में लगी हुई है, जिस पर उनका कोई दावा नहीं है। धार्मिक और जातीय राष्ट्रवादी एक ही पैटर्न दोहराते हैं : अपने पूर्वजों के इर्द-गिर्द एक आभामंडल बनाने के लिए एक काल्पनिक अतीत का आविष्कार करना, उनके उद्देश्य का महिमामंडन करना और ऐसी बातों के ज़रिए खुद को अच्छा महसूस कराना, जिनका सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं होता। इससे भी बदतर, वे राष्ट्रीय प्रतीकों को चुरा लेते हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में संसद में संविधान के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के बारे में जो कुछ कहा, जैसे कि वे देश के संस्थापक पिताओं और संविधान के निर्माताओं की विरासत के वारिस हैं, वह जांच के योग्य है। यह अतीत को फिर से, और निश्चित रूप से अश्लील तरीके से, गढ़ने का एक प्रयास है। आइए देखें कि उनके आंदोलन के शुरुआती नेताओं ने संविधान के बारे में क्या कहा था?
30 नवंबर, 1949 को आरएसएस के मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ ने एक संपादकीय प्रकाशित किया था, जिसमें कहा गया था : “भारत के नए संविधान के बारे में सबसे बुरी बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है… इसमें प्राचीन भारतीय संवैधानिक कानूनों, संस्थाओं, नामकरण और पदावली का कोई निशान नहीं है… मनु के कानून स्पार्टा के लाइकर्गस या फारस के सोलोन से बहुत पहले लिखे गए थे। आज भी मनुस्मृति में वर्णित उनके कानून दुनिया भर में प्रशंसा का विषय हैं और सहज आज्ञाकारिता और अनुरूपता को बढ़ावा देते हैं। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए इसका कोई मतलब नहीं है।
राजनीतिक हिंदुत्व के संस्थापकों ने मनुस्मृति को संविधान से ऊपर रखा था। आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में संविधान के बारे में अपने विचार विस्तार से बताए हैं : “हमारा संविधान भी पश्चिमी देशों के विभिन्न संविधानों के विभिन्न अनुच्छेदों का एक बोझिल और विषम संयोजन मात्र है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे हमारा अपना कहा जा सके। क्या इसके मार्गदर्शक सिद्धांतों में इस बात का एक भी संदर्भ है कि हमारा राष्ट्रीय मिशन क्या है और हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य क्या है? नहीं! संयुक्त राष्ट्र चार्टर या अब समाप्त हो चुके राष्ट्र संघ के चार्टर के कुछ कमजोर सिद्धांत और अमेरिकी और ब्रिटिश संविधानों की कुछ विशेषताओं को एक साथ मिलाकर महज एक मिश्रण बना दिया गया है… दूसरे शब्दों में, भारतीय संविधान में भारतीय सिद्धांतों या राजनीतिक दर्शन की कोई झलक नहीं है।”
इसलिए मोदी और उनकी टीम एक ऐसी विरासत को हथियाने के खेल में लगी हुई है, जिस पर उनका कोई दावा नहीं है। उन्होंने संसद में अपने हालिया भाषण में कहा कि वे संविधान की बदौलत इस पद पर हैं, जिसके मुख्य निर्माता बी आर अंबेडकर थे। दिलचस्प बात यह है कि अंबेडकर के मूल्य आरएसएस के मूल्यों से बहुत अलग है। आरएसएस मनुस्मृति का जश्न मनाता है। 1927 की शुरुआत में, अंबेडकर ने अपनी राजनीतिक शुरुआत मनुस्मृति की प्रति जलाकर किया था।
बहुसंख्यकवादी ताकतों द्वारा अपने अनुकूल अतीत का आविष्कार करने की इस कवायद का कोई औचित्य नहीं है, सिवाय इसके कि वे इस बात पर जोर दें कि वे हमारे राष्ट्रीय प्रतीकों के मूल्यों के वाहक हैं। लेकिन, इतिहास का ज्ञान ऐसा करने में एक बड़ी बाधा है, और यही कारण है कि इतिहास को फिर से लिखना होगा या स्कूल से ही पाठ्यपुस्तकों से हटाना होगा। एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों से भारतीय इतिहास के विभिन्न कालखंडों को बाहर करने को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। बाबरी मस्जिद को पहले ही मिटा दिया गया है और तीन गुंबद वाली संरचनाएँ बताई गई हैं।
अंबेडकर और स्वामी विवेकानंद जैसे लोगों को भी अपने पक्ष में करना इस साजिश का हिस्सा है। मोदी और उनके साथियों ने चालाकी से अपनी जुबान से अम्बेडकर का गुणगान करना शुरू कर दिया है।
आरएसएस ने हिंदू कोड बिल का पुरजोर विरोध किया था, जिसे अंबेडकर ने नेहरू मंत्रिमंडल में कानून मंत्री के रूप में पेश किया था। जबकि नेहरू ने इस बिल का समर्थन किया और कहा कि यह उनकी प्रतिष्ठा का मामला है कि इसे पारित किया जाए, कांग्रेस और आरएसएस के भीतर कट्टर हिंदुत्व समर्थकों के एक बड़े तबके ने यह सुनिश्चित करने के लिए जोरदार अभियान चलाया था कि यह बिल निरस्त हो जाए।
नाराज अंबेडकर ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था। विडंबना यह है कि हिंदू कोड बिल विरोधी आंदोलन के चरम पर, जो भारत में लैंगिक समानता लाने के लिए अंबेडकर के प्रयासों के खिलाफ था, आरएसएस कार्यकर्ताओं ने अंबेडकर के पुतले जलाए थे।
आइए विवेकानंद पर करीब से नज़र डालें, जिन्हें भगवा ब्रिगेड उत्साहपूर्वक उद्धृत करता है। विवेकानंद को सबसे ज़्यादा क्या नापसंद था? 1893 में शिकागो में दिए गए उनके भाषण से इस बारे में सभी संदेह दूर हो जाते हैं। उन्होंने कहा, “संकीर्णता, कट्टरता और इसके भयानक वंशज सांप्रदायिक उन्माद ने लंबे समय से इस खूबसूरत धरती पर कब्ज़ा कर रखा है। उन्होंने धरती को हिंसा से भर दिया है, इसे बार-बार मानव रक्त से नहलाया है, सभ्यता को नष्ट किया है और पूरे राष्ट्र को निराशा में डाल दिया है। अगर ये भयानक राक्षस न होते, तो मानव समाज आज की तुलना में कहीं ज़्यादा उन्नत होता।”
यह कोई रहस्य नहीं है कि हिंदुत्व की राजनीति के ध्वजवाहकों ने संविधान सभा के भीतर से नियमित रूप से संविधान पर हमला किया था। हिंदू कोड बिल विरोधी प्रदर्शनकारियों ने यहां तक कहा था कि अंबेडकर को, जो आरएसएस के लिए पहले “अछूत” हैं, “अछूत” होने के कारण हिंदू ग्रंथों और कानूनों की व्याख्या करने का कोई अधिकार नहीं है।
संघ परिवार की ये कोशिशें काफी समय से चल रही हैं। इसकी शुरुआत इस झूठे दावे से हुई कि सरदार पटेल की आरएसएस के प्रति सहानुभूति थी। यह पटेल ही थे, जिन्होंने गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर अधिकृत रूप से प्रतिबंध लगाया था। 2 फरवरी, 1948 को जब भारत सरकार ने आरएसएस पर प्रतिबंध लगाया था, तो प्रस्ताव में कहा गया था कि “घृणा और हिंसा की ताकतों को जड़ से उखाड़ फेंकने” के लिए वह दृढ़ संकल्पित है। उन्होंने गोलवलकर को लिखा, “सरकार या लोगों के पास एक कण के बराबर भी आरएसएस के लिए सहानुभूति नहीं बची है… जब गांधीजी की मृत्यु के बाद आरएसएस के लोगों ने खुशी जताई और मिठाइयाँ बाँटीं, तो विरोध और भी तीखा हो गया।”
राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के जवाब में अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने हमारे इतिहास के कुछ ऐसे महान लोगों को अपना बताया है, जिन्होंने आरएसएस-मोदी के विचारों के विपरीत विचार व्यक्त किए हैं। यह एक जहरीली परियोजना है, जिसका विरोध किया जाना चाहिए और इसके खिलाफ पूरी ताकत से लड़ना चाहिए।
(लेखक माकपा के राज्यसभा सदस्य हैं। अनुवादक छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं। संपर्क : 94242-31650)