दिल्ली : इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि अठारहवीं लोकसभा के जिस पहले सत्र की शुरूआत, सत्ता पक्ष द्वारा पचासवीं सालगिरह के नाम पर (जबकि गणित के हिसाब से यह 49वीं सालगिरह ही थी), श्रीमती इंदिरा गांधी की 1975 की 25-26 जून की मध्यरात्रि की आंतरिक इमरजेंसी की घोषणा को जी भरकर गरियाने के साथ हुई है, उसी की चर्चा के पहले दिन की शुरूआत, बैठक शुरू होने से पहले विपक्ष द्वारा अपने खिलाफ, केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग के विरुद्घ संसद के दरवाजे पर विरोध प्रदर्शन किए जाने के साथ हुई। जाहिर है कि इस विरोध प्रदर्शन में दिल्ली के चीफ मिनिस्टर अरविंद केजरीवाल के जेल में बंद रखे जाने का मुद्दा, केंद्र सरकार द्वारा विपक्ष के खिलाफ ईडी, सीबीआई आदि केंद्रीय जांच एजेंसियों का दुरुपयोग किए जाने के खास उदाहरण के तौर पर उठाया जा रहा था।
अरविंद केजरीवाल के मामले में केंद्रीय एजेंसियों के राजनीतिक विद्वेष की भावना से काम करने की सच्चाई तब और नंगई से सामने आ गयी, जब दिल्ली की राउज एवेन्यू अदालत द्वारा लंबी कानूनी मशक्कत के बाद, प्रिवेंशन ऑफ मनी लाउंडरिंग (पीएमएलए) जैसे अति-दमनकारी कानून के अंतर्गत केजरीवाल के खिलाफ पहली नजर में मामला नहीं बनने के आधार पर जमानत दे दिए जाने के बाद, मोदी सरकार की ईडी उनकी जमानत रुकवाने के लिए हाई कोर्ट में पहुंच गयी और अंतत: जमानत रुकवाने में कामयाब भी हो गयी। सभी ने देखा कि यह सब इतनी हड़बड़ी में और किसी भी तरह जमानत पर छूटने से उन्हें रोकने की नीयत से किया गया था कि राउज एवेन्यू अदालत का फैसला अपलोड होने यानी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होने से पहले ही, हाई कोर्ट से उसे रोकने के आदेश की प्रार्थना की जा चुकी थी और अदालत द्वारा अपने विवेक से उसे स्वीकार भी किया जा चुका था। लेकिन, यह किस्सा इतने पर ही खत्म नहीं हो गया। हाई कोर्ट के उक्त आदेश के खिलाफ, सुप्रीम कोर्ट में केजरीवाल की याचिका पर किसी तरह की न्यायिक राहत का रास्ता रोकने की ही नीयत से, केंद्रीय एजेंसियों की रिले रेस में अब सीबीआई को आगे कर दिया गया, जिसने उसी प्रकरण के एक भिन्न पहलू —षडयंत्रात्मक पहलू — पर कार्रवाई के नाम पर जेल में ही केजरीवाल को दोबारा गिरफ्तार कर लिया। हैरानी की बात नहीं है कि सीबीआई की इस कार्रवाई के बाद केजरीवाल को ईडी के मामले में जमानत से संबंधित अपनी याचिका उपयुक्त नहीं रह जाने के चलते वापस लेनी पड़ी और इस तरह के केंद्रीय एजेंसियों ने, जाहिर है कि मोदी-शाह सरकार के इशारे पर, यह सुनिश्चित किया है कि प्रासंगिक निचली अदालत द्वारा जमानत दिए जाने के बावजूद वह अभी और जेल में ही बंद रहें।
वास्तव में यह मामला एक केजरीवाल का ही नहीं है। दिल्ली के चीफ मिनिस्टर का यह मामला इस लिहाज से दुर्लभतम है कि स्वतंत्र भारत के सात दशक से ज्यादा के इतिहास में, इससे पहले किसी भी और चीफ मिनिस्टर को, सांकेतिक अदालती दंडात्मक कार्रवाई को छोड़कर, इस तरह गिरफ्तार नहीं किया गया था। लगभग ऐसे ही मामले में एक और विपक्षी चीफ मिनिस्टर हेमंत सोरेन लगभग पांच महीने बाद पिछले ही सप्ताह जेल से छूटे हैं। झारखंड के चीफ मिनिस्टर हेमंत सोरेन के मामले में आरोपों की भिन्नता के अलावा इतना-सा तकनीकी अंतर जरूर था कि ईडी द्वारा पीएमएलए के अंतर्गत गिरफ्तार किए जाने से पहले उन्हें राज्यपाल को अपना इस्तीफा देने का मौका जरूर दिया गया था और इस्तीफा देेते ही, राजभवन के दरवाजे से ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था। इस तरह, तकनीकी रूप से गिरफ्तारी के समय वह सीएम के पद पर नहीं थे। हैरानी की बात नहीं है कि संसद परिसर में विपक्ष के 1 जुलाई के विरोध प्रदर्शन के पीछे, केंद्रीय एजेंसियों के हाथों हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी का अनुभव भी था, जिसे रांची हाई कोर्ट ने ही निराधार पाया है और जमानत मंजूर कर ली है।
बेशक, इस विरोध के पीछे सिर्फ विपक्षी मुख्यमंत्रियों का ही मामला नहीं था। इसके पीछे मोदी-शाह द्वारा देश में स्थापित उस तानाशाहीपूर्ण निजाम के आम विरोध की भी आवाज थी, जिसके संदर्भ में विपक्षी मुख्यमंत्रियों की गिरफ्तारी सबसे ज्यादा ध्यान खींचने वाली ही सही, पर सिर्फ हिमशैल का सतह के ऊपर दिखाई देने वाला छोर भर है। इसमें यूएपीए जैसे दमनकारी कानूनों के तहत, भीमा-कोरेगांव केस समेत पचासों बुद्घिजीवियों तथा सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों की मौजूदा सरकार की आलोचना/विरोध करने के लिए गिरफ्तारियां और बिना कोई मामला चलाए महीनों-सालों तक जेल में डाले रखा जाना भी शामिल हैं। इस सिलसिले में हाल में चर्चा में रहे दो प्रकरणों की याद दिलाना ही काफी होगा। इनमें पहला है, हाल के चुनाव के नतीजे आने के फौरन बाद, दिल्ली के लैफ्टीनेंट गवर्नर की इजाजत से, प्रख्यात लेखिका तथा विचारक, अरुन्धती राय और कश्मीर केंद्रीय विश्वविद्यालय के पूर्व-प्रोफेसर शौकत हुसैन के खिलाफ, 2010 के उनके भाषण के लिए, यूएपीए का केस थोपा जाना। यह पूरा मामला इतना बेतुका और बेढंगा है कि, संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार कार्यालय तक को, तुरंत इस मामले को वापस लिए जाने की मांग करनी पड़ी है।
दूसरा मामला, समाचार पोर्टल न्यूज़क्लिक के संस्थापक-संपादक, प्रबीर पुरकायस्थ की दमनकारी यूएपीए के ही तहत गिरफ्तारी का है, जिन्हें लगभग सात महीने जेल में बिताने के बाद, कुछ ही सप्ताह पहले सुप्रीम कोर्ट द्वारा जमानत देकर रिहा किया गया है। प्रबीर पुरकायस्थ को, उनके तथा उनके समाचार पोर्टल के खिलाफ अंतहीन जांच के बाद, पिछले साल के मध्य में एक अभूतपूर्व दमनकारी कार्रवाई के हिस्से के तौर पर, पोर्टल के मानव संसाधन विभाग के प्रमुख के साथ गिरफ्तार किया गया था। इस कार्रवाई में समाचार पोर्टल से जुड़े पत्रकारों से लेकर, अंशकालिक रूप से उसके लिए सामग्री का योगदान देने वाले लेखकों-विद्वानों तक, पचास से ज्यादा लोगों के घरों पर पुलिस ने एक साथ छापा मारा था, उनसे पूछताछ की थी और सैकड़ों की संख्या में उनके लैपटॉप, फोन व अन्य उपकरण जब्त कर लिए थे, जो साल भर बाद भी वापस नहीं किए गए हैं। मुख्यमंत्रियों की गिरफ्तारी की ही तरह, कम से कम किसी मीडिया संस्थान पर इस तरह के हमले की कार्रवाई, इमरजेंसी की कुख्यात सेंसरशिप के जमाने में भी नहीं हुई थी। इस सारे प्रसंग में इमरजेंसी की याद दिलाने वाला एक अतिरिक्त तत्व यह था कि प्रबीर पुरकायस्थ को, तत्कालीन शासन का विरोध करने के लिए, इमरजेंसी के दौरान भी इसी प्रकार जेल का मुंंह देखना पड़ा था। तब संंबंधित अति-दमनकारी प्रावधान का नाम मीसा था और इस बार यूएपीए।
इस सबके साथ एक और संयोग और जोड़ लें। जिस दिन संसद की कार्रवाई की शुरूआत, केंद्रीय एजेंसियों के सरकार के आलोचकों/विरोधियों के खिलाफ दुरुपयोग के विरुद्घ विपक्षी सांसदों के विरोध प्रदर्शन से हुई, उसी सुबह से देश में तीन नये आपराधिक कानून लागू हो गए। भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), जाब्ता फौजदारी (सीआरपीसी) और साक्ष्य कानून (एवीडेंस एक्ट) की जगह लेने के लिए बनाए गए नये तीन आपराधिक कानूनों की व्यापक रूप से हो रही आलोचनाओं में इन्हें दमनकारी और पुलिस राज्य की ओर ले जाने वाले कानून बताया जा रहा है, जो गलत नहीं लगता है। इन कानूनों में सजाओं को कड़ा करने तथा उनका दायरा बढ़ाने के अलावा, जिनमें पुलिस हिरासत की अवधि पंद्रह दिन से बढ़ाकर तीन महीना करना तक शामिल हैं, नये अपराध जोड़कर अपराधों का दायरा भी बढ़ाया गया है। मिसाल के तौर पर राजद्रोह की धारा इस नाम से तो खत्म कर दी गयी है, लेकिन वास्तव में कथित राजद्रोह का दायरा बढ़ाकर, शासन के तमाम विरोध को इसके दायरे में समेटने का इंतजाम किया गया है। यह संयोग ही नहीं है कि इन कानूनों को संसद के शीतकालीन सत्र में, दोनों सदनों में करीब डेढ़ सौ विपक्षी सांसदों को यानी अधिकांश विपक्ष को निलंबित करने के बाद, बिना किसी समुचित बहस के ही पारित कराया गया था और संसदीय समिति में विपक्ष द्वारा दर्ज कराई गयी आपत्तियों को पूरी तरह से अनदेखा ही कर दिया गया था।
बेशक, इन कानूनों के प्रस्तावक गृहमंत्री अमित शाह इनके भारतीयों द्वारा भारतीयों के लिए तथा भारतीय संसद द्वारा निर्मित और औपनिवेशिक आपराधिक न्याय कानूनों का अंत करने वाले कानून होने का दावा करते हैं, लेकिन इन कानूनों में हिंदी के नाम के सिवा शायद ही कुछ है, जिसे सचमुच भारतीय कहा जा सकता हो। जैसा कि पूर्व-गृहमंत्री पी चिदंबरम ने कहा है, इन कानूनों में 90 से 95 फीसद तक तो, पिछले कानूनों से कापी-पेस्ट ही किया गया है, बस धाराओं के नंबर बदल दिए गए हैं। अमित शाह का यह कहना तो सही है कि औपनिवेशिक दौर के कानून सजा पर केंद्रित थे, लेकिन उनके लाए कानूनों के न्याय को प्राथमिकता देने के उनके दावे से ठीक उलट, इन नये कानूनों का सारा जोर सजाओं को और भी कड़ा करने पर ही है। यह कुल मिलाकर ऊंची दुकान और कडु़ए पकवान का ही मामला है।
मोदी राज की इस हकीकत के सामने, मोदी से लेकर लोकसभा के स्पीकर से होते हुए, राष्ट्रपति के अभिभाषण तक इमरजेंसी, 49वीं सालगिरह पर इमरजेंसी का याद किया जाना, पाखंड से भी ज्यादा, मौजूदा तानाशाही को ढांपने की तिकड़म ही लगता है। इमरजेंसी को सचमुच याद करने का मतलब है, इस बढ़ती चौतरफा तानाशाही का विरोध करना। बेशक, 1975-77 की इमरजेंसी के विपरीत, आज की यह इमरजेंसी अघोषित है। लेकिन, है इमरजेंसी ही। बल्कि कई मायनों में यह घोषित इमरजेंसी से भी बदतर है। जनतांत्रिकता के पाखंड के अलावा भी बहुत कुछ है, जो इस अघोषित इमरजेंसी को उस घोषित इमरजेंसी से बदतर तानाशाही बनाता है : जैसे मुसलमानों की मॉब लिंचिंग, जैसे शासन के संरक्षण में सांप्रदायिक गोलबंदी और उसके हिस्से के तौर पर जम्मू-कश्मीर में जनतंत्र का गला घोंटा जाना, जैसे मीडिया की मुख्यधारा का पूर्ण गोदीकरण।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)