गद्दी से प्यार, जनादेश से तकरार : राजेंद्र शर्मा

Rajendra Sahu
13 Min Read

दिल्ली : कहावत है- पूत के पांव पालने में ही दीख जाते हैं। आम चुनाव के नतीजे आने के बाद गुजरे करीब दो सप्ताहों में ही, नरेंद्र मोदी की सरकार ने एक के बाद एक, इसके काफी संकेत दे दिए हैं कि नयी मोदी सरकार, पिछली मोदी सरकार का ही अगला संस्करण साबित होने जा रही है। बेशक, इसका सबसे बड़ा संकेत तो तभी मिल गया था, जब प्रधानमंत्री के साथ उनके लगभग पूरे मंत्रिमंडल के शपथ ग्रहण में, सहयोगी पार्टियों को अपेक्षाकृत सस्ते में निपटा दिया गया। हालांकि, मोदी की भाजपा भी इससे इंकार नहीं कर सकती है कि इस बार जनादेश, साफ तौर पर एक वास्तविक गठबंधन सरकार के पक्ष में यानी ऐसी सरकार के लिए है, जिसका अस्तित्व गठबंधन के कायम रहने-न रहने पर निर्भर होगा। फिर भी सहयोगी पार्टियों को उनकी संख्या के अनुपात से काफी कम, पांच कैबिनेट मंत्रिपदों समेत, कुल 11 मंत्रिपदों में निपटा दिया गया।

IMG 20240625 WA0008

बाद में इसी सिलसिले को और आगे बढ़ाते हुए गृह, वित्त, रक्षा व विदेश ही नहीं, शिक्षा, रेल, स्वास्थ्य, कृषि, वाणिज्य, कानून आदि प्राय: सभी वजनदार मंत्रालय भाजपा के हाथों में ही रखते हुए, न सिर्फ सहयोगी पार्टियों को सस्ते में निपटा दिया गया, बल्कि मंत्रिमंडल के बड़े हिस्से में जिम्मेदारियां पिछली सरकार वाली ही बनाए रखते हुए, सचेत रूप से यह संदेश देने की कोशिश की गयी कि प्रधानमंत्री मोदी ही नहीं, पूरी सरकार ही पहले वाली ही है। इसी संदेश को और आगे बढ़ाते हुए, मंत्रिपरिषद में विभागों के वितरण के फौरन बाद, अजीत डोभाल को एक बार फिर पांच साल के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और पीके मिश्र को प्रधानमंत्री का प्रिंसिपल सेक्रेटरी बना दिया गया। ये दोनों वरिष्ठ नौकरशाह 2014 से ही नरेंद्र मोदी निजाम महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं।

IMG 20240625 WA0009

वास्तव में नरेंद्र मोदी, इस चुनाव के नतीजे आने के बाद से ही, चुनावी जनादेश के इस बुनियादी सच को छुपाने, दबाने, मिटाने की कोशिशों में ही लगे रहे हैं कि इस बार जनता का फैसला 2014 और 2019 के उसके फैसले से गुणात्मक रूप से भिन्न है, जब जनता ने भाजपा को अकेले ही बहुमत दिया था और इसी के दूसरे पहलू के तौर पर, विपक्ष की ताकत को काफी कमजोर बनाए रखा था। बेशक, 2014 और 2019 के चुनाव के बाद भी एनडीए के नाम पर मोदी की भाजपा ने प्रमुख सहयोगी पार्टियों को सत्ता में थोड़ी-बहुत हिस्सेदारी देना मंजूर किया था, लेकिन यह मोदी की भाजपा के छोटा-सा हिस्सा देना मंजूर करने की कार्यनीति अपनाने का ही मामला था, जो इन सरकारों को अपनी प्रकृति से गठबंधन सरकार बनाने के लिए बिल्कुल नाकाफी था। हैरानी की बात नहीं है कि मोदी के दूसरे कार्यकाल तक आते-आते एनडीए सिर्फ नाम के वास्ते ही रह गया था, वर्ना अपने पूर्व-संस्करणों के विपरीत, अब न तो एनडीए का कोई साझा कार्यक्रम था और न ही गठबंधन में चर्चा तथा निर्णय के लिए, तालमेल कमेटी जैसा कोई निकाय था। नरेद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में तो गठबंधन की कोई बैठक तक नहीं बुलाई गई थी। विचार और निर्णय की सारी राजनीतिक प्रक्रिया मोदी-शाह जोड़ी से शुरू होकर, उन्हीं पर खत्म हो जाती थी।

स्वाभाविक रूप से अलग-अलग मुद्दों पर 2019 के चुनाव से पहले चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम् पार्टी, उस चुनाव के बाद उद्घव ठाकरे के नेतृत्व में शिव सेना, नये कृषि कानूनों के मुद्दे पर शिरोमणि अकाली दल, बिहार विधानसभा चुनाव के फौरन बाद चिराग पासवान के नेतृत्व वाली एलजेपी और आगे चलकर, नीतीश कुमार के नेतृत्व में जनता दल यूनाइटेड तथा अन्य कई छोटे-छोटे दलों के छिटक कर अलग हो जाने से, मोदी के दूसरे कार्यकाल के आखिर तक आते-आते, एनडीए को व्यवहार में भुलाया ही जा चुका था। विपक्ष की एकजुट होकर गठबंधन बनाने की कोशिशों के मुकाबले, अकेले भाजपा की ताकत और उससे भी बढ़कर मोदी की लोकप्रियता की ताकत का बढ़-चढ़कर प्रदर्शन होता था और एक अकेला सब पर भारी की शेखियां मारने में, खुद सुप्रीम नेता तक गर्व का अनुभव करता था। वह तो जब इंडिया के नाम से विपक्षी गठबंधन ने आकार ग्रहण करना शुरू कर दिया और इस गठबंधन की ताकत के गणित के आगे मोदी की भाजपा अपने सारे साधनों तथा हथियारों के बावजूद कमजोर दिखाई देने लगी, तब मोदी-शाह जोड़ी को एनडीए को तहखाने से निकालकर बाहर लाने की जरूरत पड़ी।

लेकिन, इसके बावजूद उन्हें एनडीए का कोई वास्तविक पुनर्जीवन स्वीकार नहीं हुआ। इंडिया गठबंधन के मुकाबले, उत्तर-पूर्व की अनेक छोटी-छोटी पार्टियों तथा कई नाम मात्र की पार्टियों की और बड़ी सूची तो बनाकर पेश कर दी गयी, लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार को समर्थन देने के सिवा, इस गठबंधन की और कोई भूमिका नहीं थी। इतना ही नहीं, संघ-भाजपा को अपने इस गठबंधन की वास्तविकता का एहसास था, इसलिए ऐन आम चुनाव की पूर्व-संध्या में कथित चाणक्य नीति का सहारा लेते हुए, विभिन्न उपायों तथा तिकड़मों से टार्गेटेड अभियान चलाकर कर्नाटक में देवगौड़ा की पार्टी जनता दल सेकुलर, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम् और बिहार में नीतीश कुमार की जनता दल-यूनाइटेड को मोदी के पाले में लाया गया। याद रहे कि ऐन चुनाव के मौके पर मोदी के पाले में लाई गई इन्हीं पार्टियों के सहारे, मोदी को अपना तीसरा कार्यकाल शुरू करने के लिए जरूरी साधारण बहुमत मिल पाया है।

हैरानी की बात नहीं है कि चुनाव नतीजे आने के बाद से, प्रधानमंत्री की जुबान पर एनडीए का नाम बखूबी चढ़ गया है। नतीजे के फौरन बाद, ऐतिहासिक जीत का दावा करने वाले अपने संबोधन में और फिर कथित एनडीए संसदीय दल द्वारा नेता चुने जाने के बाद अपने संबोधन में, प्रधानमंत्री मोदी ने बीसियों बार उस एनडीए का नाम लिया, जिसे सीढ़ी बनाकर ही वह सत्ता तक पहुंच सकते थे। इस सब में उन्होंने संघ और भाजपा के भी अपने अनेक सहयोगियों को हैरान करते हुए, एक अभूतपूर्व पैंतरे को आजमाते हुए, अपने भाजपा संसदीय दल द्वारा नेता चुने जाने की औपचारिकता पूरी करना भी जरूरी नहीं समझा कि कहीं उस प्रक्रिया में कोई विरोधी या नाखुशी के स्वर न सुनने पड़ जाएं। इसके बजाय, हाथ के हाथ एनडीए संसदीय दल नाम का एक नया निकाय गढ़कर, जिसमें मुख्यमंत्रियों समेत अनेक नेताओं को बैठा लिया गया, नरेंद्र मोदी के नाम का अनुमोदन करा लिया गया। जाहिर है कि सैद्घांतिक रूप से यह भाजपा संसदीय दल से कहीं व्यापक आधार वाले निकाय का समर्थन हुआ, जिसके बाद भाजपा संसदीय दल के अनुमोदन का सवाल उठाना, मीन-मेख निकालना ही लगता, जो कि किसी ने भी नहीं किया। लेकिन, यह कहना मुश्किल है कि नरेंद्र मोदी के तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद से, आरएसएस के शीर्ष नेतृत्व से धीमे सुर में जो आलोचनाएं सामने आई हैं, उनके पीछे चुनावी धक्केे की खीझ के अलावा किसी चर्चा की गुंजाइश न छोड़ते हुए, इकतरफा तरीके से फैसले लाद दिए जाने पर, संघ-भाजपा की कतारों की झुंझलाहट भी है।

बहरहाल, एनडीए संसदीय दल के नाम का सहारा लेने का पैंतरा अपनी जगह, जैसा हमने शुरू में ही कहा, मोदी की भाजपा को सहयोगी पार्टियों को सत्ता में समुचित हिस्सेदारी देना तक मंजूर नहीं हुआ है। यही नहीं, चुनाव से पहले एनडीए की एक गठबंधन के रूप में जो दरिद्र स्थिति थी, ना कोई साझा कार्यक्रम और न ही विचार-विमर्श व निर्णय के लिए कोई साझा निकाय, उसमें भी इस पैंतरे के आजमाए जाने के बावजूद कोई बदलाव होने के, कम से कम अब तक कोई आसार नहीं हैं। वास्तव में मोदी की भाजपा को यही स्थिति माफिक भी बैठती है। सहयोगी पार्टियों से अलग-अलग सौदेबाजी करना उसके लिए ज्यादा फायदे का सौदा है, क्योंकि इसमें बात हमेशा सौदे के, लेन-देन के स्तर पर रहेगी, जिसमें ताकत के असंतुलन के बल पर, सहयोगी पार्टियों को कम से कम स्वीकार करने के लिए दबाया जा सकता है। इसके विपरीत, गठबंधन अगर साझा कार्यक्रम तथा उसका पालन सुनिश्चित करने के लिए तालमेल कमेटी जैसे किसी निकाय के जरिए काम करने वाले गठबंधन का रूप ले लेता है, तो अपने तुलनात्मक रूप से ज्यादा ताकतवर होने के बावजूद, मोदी की भाजपा को या कहें कि मोदी को, सहयोगियों के सामूहिक दबाव का अंकुश स्वीकार करना पड़ सकता है। और यह अंकुश सहयोगी दलों के अपने स्वार्थों तक सीमित न रहकर, आमतौर पर शासन की नीतियों तथा निर्णयों तक जा सकता है। प्रधानमंत्री पद पर बैठने के बाद नरेंद्र मोदी को यह मंजूर होने की संभावनाएं कम ही हैं।

यही वह जगह है, जहां से बहुत से लोगों द्वारा उठाए जा रहे इस तरह के सवालों का जवाब निकलेगा कि क्या तेलुगू देशम्, जदयू जैसी पार्टियां, मोदी की भाजपा के सांप्रदायिक तेवरों पर अंकुश लगाएंगी? या क्या ये पार्टियां मोदी राज के तानाशाही के तेवरों पर अंकुश लगा पाएंगी? क्या ये भाजपा की सहयोगी पार्टियां, आम तौर पर विपक्ष के खिलाफ तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं व बुद्घिजीवियों आदि के खिलाफ, मोदी निजाम के तानाशाहाना तेवरों को नरम कर पाएंगी? या क्या ये पार्टियां मोदी की भाजपा के संघवाद-विरोधी हमले को कमजोर कर पाएंगी? संक्षेप में यह कि क्या गठबंधन की सरकार की यह मजबूरी, जो 2024 के जनादेश का अभिन्न अंग है, सरकार में मोदी की भाजपा की मनमानी पर प्रभावी अंकुश लगा पाएगी? बेशक, आने वाले दिनों में हम किसी न किसी रूप में यह रस्साकशी देखेंगे और बाहर से दबाव के रूप में सही, इसी जनादेश के एक और जरूरी अंग के तौर पर आई विपक्ष की उल्लेखनीय रूप से बढ़ी हुई ताकत और उसके स्वर की प्रखरता, इस रस्साकशी के नतीजों को प्रभावित कर रही होगी।

अरुंधती राय के खिलाफ चौदह साल पुराने भाषण के लिए यूएपीए के अंतर्गत मामला बनाने का अमित शाह के गृह मंत्रालय का फैसला ; केरल की स्वास्थ्य मंत्री को कुवैत जाकर वहां भीषण अग्रिकांड में मारे गए प्रमुखत: मलयाली भारतीयों के दु:ख में साथ खड़े होने रोकने का प्रधानमंत्री कार्यालय का फैसला ; नीट परीक्षा में धांधली के ज्यादा से ज्यादा स्पष्ट होते साक्ष्यों को ही नकारने की केंद्रीय शिक्षा मंत्री की कोशिशें ; भाजपा-शासित छत्तीसगढ़ में गोरक्षा के नाम पर हत्याएं और मध्य प्रदेश में फ्रिज में गोमांस मिलने के नाम पर करीब दर्जन भर मुसलमानों के घरों पर बुलडोजर चलाए जाने ; आदि नयी मोदी सरकार बनने के एक सप्ताह में ही सामने आये इन प्रसंगों से, आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि मोदी राज अपनी ओर से तो, तीसरे कार्यकाल को दूसरे कार्यकाल का अवधि विस्तार साबित करने की ही कोशिश करेगा। इससे, एनडीए गठबंधन से बाहर टकराव और गठबंधन में रस्साकशी का बढ़ना तय है। जाहिर है कि इस टकराव के बीच आरएसएस भी अपने प्लान-बी पर काम कर रहा होगा यानी अगर टकराव में सत्ता हाथ से जाती दिखाई दे, तो वैकल्पिक चेहरा।

IMG 20240625 WA0007

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)

Share This Article
Leave a comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *