संसद के खिलाड़ी बनते रेफरी : राजेंद्र शर्मा

Rajendra Sahu
13 Min Read

दिल्ली : ओम बिड़ला ने स्पीकर के रूप में अपने पहले कार्यकाल में, अपने सत्तापक्ष का सक्रिय हिस्सा बने रहने का ही सबूत दिया था। सत्रहवीं लोकसभा के आखिरी सत्रों में उन्होंने विपक्षी सांसदों के थोक निष्कासन तथा विपक्षी सांसदों के भाषणों के अंश निकालने से लेकर संसद सदस्यता तक खत्म कराने और बिना समुचित चर्चा के ही विधेयक पारित कराने तक के रिकार्ड कायम किए थे।

IMG 20240710 WA0008

यह अप्रत्याशित नहीं था कि इस बार के आम चुनाव में संविधान तथा संसदीय जनतंत्र के लिए खतरे को विपक्ष द्वारा मोदी सरकार के खिलाफ एक प्रमुख मुद्दा बनाए जाने के बाद, उल्लेखनीय रूप से बढ़ी हुई ताकत के उत्साह से भरा विपक्ष जब नयी लोकसभा के पहले सत्र में आया, संविधान की रक्षा का मुद्दा उसके साथ चला आया। इसकी अभिव्यक्ति के रूप में विपक्षी इंडिया ब्लाक के अधिकांश सदस्यों द्वारा संविधान अपने हाथ में ‘संविधान जिंदाबाद/ जय संविधान’ के नारे भी लगाए गए। बहरहाल, यह अप्रत्याशित था कि संविधान की इस दुहाई के मुकाबले में सत्तापक्ष की अपने संविधान के प्रति प्रतिश्रुत होने की सफाई, सत्तापक्ष की बैंचों की तरफ से तो सामने आयी ही, लोकसभा के अध्यक्ष के आसन से भी सामने आयी। और यह सफाई सामने आयी, स्पीकर ओम बिड़ला की ‘जय संविधान’ के विपक्षी सांसदों के शपथ के साथ लगाए जा रहे नारे पर खीझ भरी प्रतिक्रिया के रूप में। पुनर्निर्वाचित कांग्रेस सांसद, शशि थरूर के शपथ लेने के बाद, ‘जय संविधान’ का नारा लगाने पर, स्पीकर बिड़ला खुद को खासतौर पर विपक्षी सांसदों को यह याद दिलाने से रोक नहीं सके कि ‘संविधान की ही तो शपथ ले रहे हैं’! अभिप्राय यह कि ‘जय संविधान’ का नारा लगाने की तो कोई जरूरत ही नहीं थी।

इस पर विपक्षी बैंचों से जब आपत्ति की आवाज आयी और खासतौर पर कांग्रेस के दीपेंद्र हुड्डा ने स्पीकर से क्षमा मांगते हुए उन्हें याद दिलाया कि इस पर तो उन्हें आपत्ति नहीं होनी चाहिए, तो स्पीकर बिड़ला बाकायदा भड़क उठे। उन्होंने काफी गुस्से से हुड्डा को बाकायदा डांटते हुए कहा कि उन्हें यह बताने की कोशिश नहीं करें कि उन्हें किस पर आपत्ति होनी चाहिए, किस पर नहीं! प्रसंगवश यह बता दें कि दीपेंद्र हुड्डा, उम्र में हों न हों, संसद सदस्य के रूप में जरूर ओम बिड़ला से वरिष्ठ हैं।

स्पीकर बिड़ला की उक्त प्रतिक्रिया के सिलसिले में यह भी दर्ज किया जाना चाहिए कि यह शपथ ग्रहण के मौके पर, आधिकारिक शपथ के अतिरिक्त कोई नारा आदि लगाए जाने का न तो पहला मामला था और न ही इकलौता मामला। इसी बार, विशेष रूप से सत्ता पक्ष के सदस्यों द्वारा शपथ लेने के मौके पर, दूसरे कई नारे भी लगाए गए थे, जिनमें ‘जय श्रीराम’ से लेकर ‘जय हिंदू राष्ट्र’ तक के नारे शामिल थे, लेकिन स्पीकर को इन पर आपत्ति करना आवश्यक नहीं लगा था। यहां तक कि ‘जय हिंदू राष्ट्र’ जैसे आपत्तिजनक, संविधान विरोधी, राजनीतिक नारे पर भी उन्हें ऐतराज करना जरूरी नहीं लगा था। उन्हें ऐतराज हुआ, तो सिर्फ ‘जय संविधान’ बोले जाने पर, क्योंकि उनके विचार में संविधान के नाम पर शपथ लेते हुए, जय संविधान बोलना गैर-जरूरी था! खैर, यह मामला यहीं खत्म नहीं हुआ। बाद में लोकसभा स्पीकर ने सदन के काम-काज से संबंधित नियमों में ही संशोधन कर, शपथ के दौरान सदस्यों के आधिकारिक शपथ से इतर कुछ भी जोड़ने पर बाकायदा रोक ही लगा दी। विडंबना यह है कि इस रोक के जरिए, लोकसभा ने ‘जय संविधान’ को रोकने के चक्कर में, उन दूसरे नारों पर भी रोक लगा दी है, जिन पर उस समय स्पीकर को कोई आपत्ति नहीं हुई थी!

इस मामले में स्पीकर ओम बिड़ला के पक्षपात पर तो फिर भी यह तकनीकी बचाव पेश किया जा सकता है कि उनकी आपत्ति शपथ ग्रहण की पवित्रता कम करने के कारण, ऐसे मौके पर दूसरी हर प्रकार की नारेबाजी पर थी और इसीलिए, अब ऐसे मौके पर तमाम नारेबाजी पर रोक लगायी भी गयी है, विपक्ष के ही नारों पर नहीं। बहरहाल, स्पीकर के रूप में अपने पुनर्निर्वाचन और सत्तापक्ष तथा विपक्ष, दोनों के नेताओं द्वारा उन्हें स्पीकर के आसन तक पहुंचाए जाने आदि की औपचारिकताएं पूरी होने और सत्ता पक्ष तथा विपक्ष, दोनों के नेताओं द्वारा अपने-अपने तरीके से उन्हें चुने जाने के लिए बधाई देने के फौरन बाद, अपने वक्तव्य में ओम बिड़ला ने जिस तरह इमर्जेंसी के खिलाफ लंबी तकरीर कर डाली, उसकी पक्षधरता पर तो कोई तकनीकी पर्दा भी नहीं डाला जा सकता है।

मुद्दा यह नहीं है कि इमर्जेंसी के संबंध में ओम बिड़ला ने जो कहा, वह सही था या नहीं था या कितना सही था या सही नहीं था। मुद्दा यह भी नहीं है कि क्या स्पीकर के पद पर बैठे व्यक्ति को — जो जाहिर है कि सांसद होता है — इमर्जेंसी जैसे किसी राजनीतिक विषय पर टीका-टिप्पणी करने का कोई अधिकार है या ऐसा अधिकार ही नहीं है। मुद्दा यह है, जैसा कि अनेक विपक्षी नेताओं ने रेखांकित भी किया है, जिनमें से कई इमर्जेंसी के विरोधी भी रहे हैं तथा अब भी हैं, स्पीकर चुने जाने के बाद इस पद को स्वीकार करने की औपचारिकताओं की पवित्रता से जुड़े मौके पर, प्रसंग के बिना ही स्पीकर का इमर्जेंसी जैसा राजनीतिक रूप से विवादित तथा विभाजनकारी मुद्दा उठाना, क्या संसद के अंदर एकता का जो वातावरण बन रहा था, उसे जान-बूझकर खराब करना और टकराव को न्यौतना ही नहीं था। हैरानी की बात नहीं है कि इसके बाद, इस दिन की बाकी कार्रवाई हंगामे की भेंट चढ़ गयी।

इस सिलसिले में यह याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि अठारहवीं लोकसभा के इस पहले सत्र के शुरू होने से ठीक पहले अपने पारंपरिक वक्तव्य में प्रधानमंत्री ने, अगले दिन इमर्जेंसी के पचास साल पूरे हो जाने के बहाने से, आमतौर पर विपक्ष तथा खासतौर पर कांग्रेस को निशाना बनाने के लिए, जोर-शोर से इमर्जेंसी पर तलवार भांजी थी। और सत्र के आरंभ में राष्ट्रपति के अभिभाषण में भी, जोरों से इमर्जेंसी पर हमला बोला गया था। इन दो वक्तव्यों के बीच सेंडविच बना स्पीकर का इमर्जेंसी संबंधी विस्तृत बयान, जाहिर है कि उक्त दोनों बयानों का ही काम करने की कोशिश कर रहा था। जाहिर है कि यह कोशिश, मोदी राज में बढ़ती तानाशाही की आज की आलोचनाओं को, पचास साल पहले की इमर्जेंसी के हवालों से भोंथरा करने और समकालीन तानाशाही की आलोचना की आवाजों को बदनाम करने की ही कोशिश थी। क्या यह स्पीकर के अपनी रेफरी की विशिष्ट भूमिका को भूलकर, सत्तापक्ष की ओर से खेलने लगने का ही एलान नहीं है?

हैरानी की बात नहीं है कि अठारहवीं लोकसभा के इस अति-संक्षिप्त सत्र में ही, स्पीकर के चुनाव के तुरंत बाद ही, उनके आचरण की निष्पक्षता पर सवाल भी उठ गये। विपक्ष के आधिकारिक नेता, राहुल गांधी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस में अपने भावपूर्ण हस्तक्षेप में, स्पीकर से निष्पक्षता की अपेक्षा को भी रेखांकित किया और इसके विरोधी इशारे मिल रहे होने की ओर ध्यान भी खींचा। राहुल गांधी ने याद दिलाया कि किस तरह, चुने जाने के बाद, स्पीकर को उनके आसन तक छोड़े जाने के समय भी, स्पीकर का आचरण सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच, बराबरी का नजर नहीं आया। आसन तक छोड़े जाने के बाद, प्रधानमंत्री से हाथ मिलाते हुए, स्पीकर अतिरिक्त रूप से झुके हुए दिखाई दे रहे थे, जबकि विपक्ष के नेता से हाथ मिलाते हुए, ज्यादा तने हुए! स्पीकर ओम बिड़ला ने भी, तथ्यत: ऐसा होने को कबूल किया, हालांकि उन्होंने अपने इस आचरण को संस्कार और परंपरा की दलील देकर सही ठहराने की कोशिश की, कि बड़ों यानी अपने से ज्यादा उम्र के लोगों का झुककर आदर करना तो, उनके संस्कार में है। इस पर राहुल गांधी को उन्हें याद भी दिलाना पड़ा कि सदन में उनसे कोई बड़ा नहीं है, उन्हें किसी के सामने झुकने की जरूरत नहीं है। कहने की जरूरत नहीं है कि स्पीकर के पद पर बैठा व्यक्ति कम से कम अपने निर्णयों में, उम्र का लिहाज करने से भी संचालित नहीं हो सकता है। उस पर, जब स्पीकर ओम बिड़ला प्रधानमंत्री के लिए बड़े के विशेषण का प्रयोग करते हैं, तो वास्तव में वह सिर्फ आयु से बड़े की ओर ही नहीं, पद से बड़े की ओर भी इशारा कर रहे होते हैं। लेकिन, सत्ता पक्ष को बड़ा या ऊंचा और विपक्ष को छोटा या नीचा मानकर बर्ताव करना, क्या स्पीकर का अपनी निष्पक्षता का त्याग करना ही नहीं है?

ओम बिड़ला ने स्पीकर के रूप में अपने पहले कार्यकाल में, अपने सत्तापक्ष का सक्रिय हिस्सा बने रहने का ही सबूत दिया था। सत्रहवीं लोकसभा के आखिरी सत्रों में उन्होंने विपक्षी सांसदों के थोक निष्कासन तथा विपक्षी सांसदों के भाषणों के अंश निकालने से लेकर संसद सदस्यता तक खत्म कराने और बिना समुचित चर्चा के ही विधेयक पारित कराने तक के रिकार्ड कायम किए थे। मोदी राज ने इसके लिए ही उन्हें दोबारा स्पीकर का दायित्व देकर पुरस्कृत किया है। अठारहवीं लोकसभा के पहले संक्षिप्त सत्र में, विपक्षी नेताओं के भाषणों के सत्ता पक्ष को पसंद न आने वाले अनेक अंश संसदीय रिकार्ड से निकाले जाने और नीट घोटाले जैसे लाखों युवाओं से सीधे जुड़ने वाले मुद्दों पर अलग से चर्चा होने ही नहीं देने समेत ऐसा बहुत कुछ हुआ है, जो इसी का इशारा करता है कि स्पीकर से आगे भी सदन में सभी सांसदों के अभिभावक की नहीं, सत्ता पक्ष के औजार की ही भूमिका की आशा की जानी चाहिए।

पर जिस मोदी निजाम ने तमाम संवैधानिक व स्वायत्त संस्थाओं की स्वतंत्रता को भीतर से व्यवस्थित तरीके से ध्वस्त किया है, संसद में सदनाध्यक्षों की स्वतंत्रता कैसे बरकरार रहने दे सकती थी, वह भी तब जबकि दोनों सदनों के अध्यक्ष, सत्तापक्ष की कृपा से इस पद पर आते हैं। हैरानी की बात नहीं है कि राज्यसभा के सभापति, जगदीप धनखड़ ने इसी संक्षिप्त सत्र के दौरान, सत्ता पक्ष को खुश करने के लिए इसका एलान करना जरूरी समझा है कि वह चौबीस साल से आरएसएस के एकलव्य बने हुए हैं! क्या आश्चर्य कि आरएसएस के एकलव्य को प्रधानमंत्री केे भाषण के दौरान विपक्ष का वॉकआउट तक, तमाम संसदीय नियम-कायदों का उल्लंघन, बल्कि संसदीय व्यवस्था पर भारी आघात लगा है! दुर्भाग्य से मोदी राज में सदनाध्यक्षों का आसन इतना नीचे गिरा दिया गया है, अब वहां निष्पक्षता का दिखावा तक नजर नहीं आता, सिर्फ सत्ता पक्ष के प्रति वफादारी दिखाने की चिंता ही दिखाई देती है। बहरहाल, आशा की जानी चाहिए कि विपक्ष की बढ़ी हुई ऊर्जा के बल पर बढ़ता टकराव ही, संसदीय व्यवस्था को भीतर से खोखला करने की इस मुहिम पर भी अंकुश लगाएगा।

IMG 20240710 WA0009

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)

Share This Article
Leave a comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *