दल्लीराजहरा : सिंघोला राजनांदगांव से मात्र 5वें मील पर राजहरा मार्ग पर स्थित 2 हजार की आबादी वाला ग्राम वह पुण्य भूमि है जहाँ अपार जन समूह अनन्य श्रद्धा एवं चमत्कार से विस्मृत हो उठे। अबोध बालिका भानुमति को भी नहीं मालूम था कि उसके अन्दर एक अलौकिक शक्ति का वास है वह ऐसी दैवी शक्ति का आधारथी जिसने चौकी राज्य की जनता को आश्चर्य में डाल दिया। एक ऐसी घटना, जिस पर इस वैज्ञानिक युग में भले ही विश्वास न किया जाए, किन्तु सिंघोला ग्राम, बिनायकपुर, करमतरा, नगपुरा, रानीतराई, चौकी के हजारों नर-नारी इसके प्रत्यक्ष गवाह है। जिन्होंने इस घटना को प्रत्यक्ष देखा है। सहभागी बने है और (भानुमति साहू) भानेश्वरी देवी का स्मरण कर श्रद्धानत हो जतो है। जवारा पक्ष में क्रमशः १ दिनों तक उस समाधि पर जोत जलाई जती है जहाँ भानेश्वरी वी का शरीर समाधिस्थ है। आज भी श्रद्धालु जन उस महान आत्मा से दुख निवारण की प्रार्थना करते है। आज भी वे अवशेष विद्यमान है जिसका प्रयोग देबी भानेश्वरी जी करती थी। आज भी वह परिवार आत्म विस्मृत है जहां देवी भानेश्वरी ने जन्म ग्रहण किया था।
गौरतलब हो कि मटर के दानों का चमत्कार- एक मध्यम वर्गीय किसान श्री सोमनाथ जी साहू के घर 9 मई 1911 में बालिका भानुमति का जन्म हुआ। बहुत सामान्य सा बचपन कोई विशेष बात नहीं सभी क्रिया कलाप सामान्य बच्चों जैसा किन्तु “होनहाकर बिरवान के होत चिकने पात के” अनुरूप 15वें वर्ष से वह चमत्कार प्रारम्भ हुआ। जिसने सम्पूर्ण जन मानस को चमत्कृत कर दिया। बालिका भानुमति राजमार्ग पर स्थित भोथीपार, महराजपुर और सिघोला ग्राम के संगम स्थली पर गोबर ईक्ट्ठा कर रही थी। भानुमति को अकेला पाकर एक बुढ़िया लाठी टेकती हुई आई, भानुमति को आवाज देकर प्रेमपूर्वक पास बिठाई और स्नेहवश मटर के दाने खाने को दिये। अबोध बालिका मटर के दाने उसी समय खा गई। और देखो इस बात को किसी को मत बताना कह कर बुढ़िया धीरे-धीरे जाने लगी। आश्चर्य कुछ ही दूर जाने पर वह बुढ़िया अदृश्य हो गई कहां गई कोई नहीं जानता। शाम से ही भानुमति को तेज बुखार हो आया। वह दिन सोमवार का था। गुरूवार को संपूर्ण शरीर में बड़े बड़े चेचक (माता) के दाने उभर आये। दान पूरे भरे अच्छे हुये स्नान का समय (बार नहाना) 21वें दिन आया तो पुनः दाने दिखे, भरे अच्छे हुए यह क्रम लगातार होता रहा और यही बात लोगों का ध्यान आकर्षित करती रही। अन्ततः लोगों ने शीतला मंदिर में शांति करने की ठानी। ग्राम की परम्परा के अनुसार सेवक समाज द्वारा माता पहुंचानी करने माता देवालय ले जाया गया। भानुमति मंदिर में प्रवेश की। मंदिर में प्रवेश के साथ ही एक तेज किन्तु मधुर आवाज गुंज सभी का ध्यान उघर आकर्षित हुआ। भानुमति जोर-जोर से कह रही थी मैं यहां रहूंगी मेरे रहने का स्थान यही है, तुम सब अपने अपने घर चले जाओं। लोगों ने समझाया माता पिता ने आग्रह किया। बुजुर्गों ने बात की किन्तु संकल्पवती भानुमति ने सभी को इन्कार किया। अंत में किसी अन्तः प्रेरणा से सभी लोग भानुमति के संकल्प के आगे झुक गये उन्होंने तत्काल निर्णय लिया कि इनके निवास की व्यवस्था की जाये, सामूहिक ग्रामीण सहयोग एवं ग्राम मालगुजार रामधीन के जमीन अर्पण करने से मकान बनाया और आग्रह पूर्वक भानुमति देवी से निवेदन किया गया कि वे अपने मकान में रहें। मकान बनते तक भानुमति देवी निराहार रही। मकान, शीतला मंदिर के बाजू में ही तालाब के ऊपर विद्यमान है।
स्वप्न में आदेश- किन्तु एक विशेष बात अचानक घटित हुई। एक स्थानीय व्यक्ति को रात्रि के समय आदेश प्राप्त हुआ, शीतला मंदिर में देवी की सेवा में उपस्थित हो। आधी रात के वक्त ही व्यक्ति दौड़ते हुये आया, प्रातः काल तक अर्धचेतना से रहा, पश्चात देवी जी के आदेश प्राप्त होते ही पूर्व परिचित व्यक्ति के समान सेवा करना प्रारम्भ कर दिया वह व्यकित टप्पा के मालगुजार परिवार का एक सदस्य कृपालराम साहू थे जिसको प्रथम सेवक होने का गौरव प्राप्त हुआ तथा सात वर्ष तक सेवक रहे।
ज्ञात हो कि निराश लोगों का नया जीवन-इस बीच जैसे कि छत्तीसगढ़ की धार्मिक परम्परा है, लोग आत्म विभोर हो चमत्कार को ही नमस्कार करते है।
दुखी संतृप्त एवं संतानहीन लोग आने लगे। लोग देवी के पास जाते अपना दुख बताते, बमुश्किल देवी किसी से बोलती। वह सौभाग्यशाली व्यक्ति ही होता जिससे देवी भानुमति (भानेश्वरी) बात करती और उसकी मनोकमाना पूर्ण हो जाती। चाहे उसे किसी भी प्रकार का दुख व्याप्त हो। अनेक पागल आते, देवी जी अपने सामने ही उनकी बेड़ियां तुड़वाती और देखत ही देखते वह व्यक्ति स्वस्थ हो जाता। पुत्रवती होने का आशीर्वाद प्राप्त अनेक महिलायें संतानवती बनी ।
आश्चर्यजनक बात प्रश्न उठना स्वाभाविक है। प्रत्यक्ष दर्शियों ने हमारे प्रतिनिधि को बताया कि भानेश्वरी देवी अत्यल्प भोजन, सात्विक भोजन करती थी। वह जब चलती थी तो उसके पैर से कीले वाले खड़ाऊ होते थे, कीलों का ही पलंग था जहाँ वह शयन करती थी, तथा एक झुला भी कीलों से भरा हुआ था जिमसें पर्व विशेष में झूला करती थी। उनके समीप रहने वाले सेवकों के अनुभव है कि देवी जी रात्रि के समय सूक्ष्म शरीर से विचरण करती थी क्योंकि उस समय कितना भी चिल्लाये उसके शरीर में कोई स्पंदन नहीं होते थे तथा कुछ समय बाद श्वास प्रारंभ होता और ऐसा लगता कि वे थककर श्वास ले रही है तथा कभी कभी पास के ही तलवार पर छींटे भी दिखाई देते थे। इसी मध्य कुछ लोग देवी जी के आदेशानुसार दर्शन करने आते रहे। इन्हें सूचना नहीं जाती थी, प्रायः लोगों के अनुभव के अनुसार आधी रात के बाद कोई दरवाजा खटखटाता और स्पष्ट आवाज आती कि तुम्हे सिंधोला ग्राम में देवी ने बुलाया है।
मूर्ति प्रतिमूर्ति-यह भी कार्य निरन्तर चल रही थी की अचानक उन्होने भ्रमण में जाने की बात कहीं। 1944 में चौकी के जमीदार श्री चक्रधर सिंह जी को देवी का आदेश मिला। लगभग 3 सौ नर-नारी देवी जी के साथ चल पड़े। राजमहल में देवी जी का श्रद्धापूर्वक सम्मान किया गया। सभी के लिए यथोचित प्रबंध था। दूसरे दिन पहाड़ी पर स्थित कान्हे देवी जिसे कानन देवी भी कहते है के दर्शनार्थ गई।
लोगों को आश्चर्य हुआ कि देवी भानुमति तथा कान्हे देवी की शक्ल मिलती है। यहाँ मंदिर फाटक कुछ देर के लिए कान्हे देवी की मूर्ति तथा भानेश्वरी देवी के लिए बंद कर दिया था बाद में संभवतया चौकी के मालगुजार को स्वप्न में पता चला कि वहाँ की कुछ दिव्य शक्यिां देवी भानेश्वरी को प्राप्त हुई है। इसी क्रम में बस्त राज्य में स्थित माता दन्तेश्वरी जो डंकिनी एंव शखिनी नंदी के बीच स्थित है-दर्शन करने गये। वहां का पुजारी रास्ता रोकता ही रह गया, भानेश्वरी मंदिर में निर्विघ्न प्रविष्ठ हो गई, और कुछ वार्ता होने के शब्द लोगों को सुनाई दिया। वहां भानेश्वरी देवी ने ही लोगों को बताया कि दन्तेश्वरी पूर्व में प्रकट होकर भोजन करती थी, लोग दर्शन करते थे। बाद में विदेशी शासन के समय से ही वे लुप्त हो गई। वहां से वे अपने सभी भक्तों के साथ वापस सिंघोला आ गई।
बता दे कि आसपास के ग्रामीणों के मध्य देवी का यह कथन प्रचलित है कि भानेश्वरी देवी का प्रथम प्राकट्य दंतेश्वरी में हुआ था जाहें व दन्तेश्वरी के नाम से विख्यात श्री द्वितीय अवस्था में कान्हे देवी के रूप में दर्शन दी। तथा व्रतीय अवस्था चौकी में जहां के झूले के हिलने से देवी का आगमन सूचित होता है। इसके बाद “खमतराई”
नामक ग्राम में जहां बेर पेड़ के पास से “पगली” रूप दिखाई दी जिसे मुक्ति मालगुजार ने कमरे में बंद करा दिया था किन्तु प्रातः काल पुनः झील में दिखाई दी थी। वहीं रूप में भकमरा में प्रकट हुड़ जहां फूलों से ढक दिया गया किन्तु बाद में कुछ भी दिखाई नहीं दिया, वह लुप्त हो गई थी और पांचवा प्राकट्य सिंघोल में हुआ, जहाँ का चमत्कार उपरोक्त अनुसार दर्शित है। आज भी सभी लोग देवी की इस कथा से परिचित हैं तथा संपूर्ण जीवन कविता रूप में उल्लेखित है। बारहों मास धार्मिक मेला-जीवन पर्यन्त धार्मिक कार्यों में लिप्त रहने वाली भानेश्वरी देवी के निर्देशन में 21 बार श्रीमद् भागवत, 21 बार हरीकीर्तन समारोह, 5 बार देवी भागवत का आयोजन तथा कई बार महाभारत उत्सव, प्रतिवर्ष दुर्गा नवमी के समय दुर्गा पूजन (भव्य प्रतिमा अखण्ड जंवारा ज्योति के साथ) कार्यक्रम सम्पन्न होता था। जबकि न ही भानेश्वरी देवी किसी से अनुदान लेती थी न ही उसके पास कोई आमदनी का साधन था। इस प्रकार से सिंघोला ग्राम मानों पुण्य धाम था जहाँ भानेश्वरी देवी ने अपने अलौकिक कार्यक्रम पूर्ण किये। जीवन पर्यन्त, मधूरा, प्रयाग, काशी आदि। तीर्थो के दर्शनार्थ गई और हमेशा उनके साथ 10-20 अनुयायी रहे। और वह जोत-महाजोत में विलीन हो गई उसी मध्य एक अनहोनी घटना हुई। 3 नवम्बर 1975 सोमवार लक्ष्मी पूजा दीपावली के दिन एक शिकारी तीर कमान लेकर तथा एक चरवाहा कंबल ओढ़े देवी जी के पास । उस समय मुख्य सेवक सरजूराम, एक रसोइया, उत्तरा कुमारी तथा अन्य दो चार व्यक्ति बैठे थे। वे दोनो माताजी के पास एकदम बेधड़क सामने आ गये और कुछ विशेष इशारों से माता जी से बात किये लोग कुछ और रोकते इसके पूर्व वे कुछ दूर निकले और इसके बाद कोई नहीं जानता कि वे दोनो कहां गये। और उसी शाम 7 बजकर 30 मिनट पर जलाये दीपक अचानक बुध गये। वही सूचना पूर्व के कृपापात्र व्यक्ति के घरों में भी हुई सभी को आश्चर्य, सभी पर एक ही प्रभाव-लोग दौड़ पड़े शीतला मंदिर की ओर माता जी के निवास की ओर किन्तु वह दिवस आत्मा, शुन्य में विली हो चुकी थी प्रत्क्ष दर्शियों ने बताया कि कुछ प्रकाश सी वस्तु मस्तक से निकली और माता जी का शरीर शांत हो गया। लोग समाधिस्थ समझे। पर्याप्त समय तक इंतजार किया गया, किन्तु मिला तेज से जेत की वह सच्ची अधिकारी थी के अनुरूप आत्मा सर्व व्याप्त हो गई।
महाप्रयाण की भविष्य वाणी-देवी जी ने ठीक एक वर्ष पूर्व अपने स्वर्गारोहण की बात सामान्य कथा के रूप में बताई थी तथा अपने शयन स्थान पर ही समाधि निर्माण करने की बात कही थी उनके ही आदेशानुसार, ईट, सीमेंट से पक्के सेज का निर्माण 7 x 3 x 3 के आकार से किया तथो दवी जी का समाधिस्थ शरीर 21 वस्त्रों सहित, इत्र, गुलाल, पुष्प आदि से युक्त सावधानी पूर्वक रखकर बन्द कर एक स्मारक का निर्माण कर दिया गया। इसी दिन पूर्व घोषणानुसार मंडई का भी आयोजन था जो कि फीका-फीका सा हो गया किन्तु कोई अव्यवस्था नही हुई। क्या उनका सूक्षम रूप विद्यमान है?
स्मारक निर्माण के बाद देवी जी को भोग लगाया गया सभी तरफ से द्वार बन्द कर दिया गया था। बाहर यशगान हो रहा था, कुछ समय बाद लोगों ने देखा कि तथा पानी कुछ अंश गायब है तथा उस पर अंगुलियों के निशान है। लोगों ने देवी जी का प्रसाद समझ कर उसे प्रेमपूर्वक ग्रहण किया तब से आज पर्यन्त यह परम्परा है और अंगुलियों के आकृति आज भी पाईजाती है। पर्व विशेष पर माता जी की समाधि पर मानव तथा सिंह के पद चिन्ह तथा मानव का अस्पष्ट स्वर तथा प्रकाश दिखाई पड़ता है।
वर्तमान में माता जी द्वारा प्रयुक्त परिधान तथा उसे व्यवहार की वस्तुयें कपड़े आभूषण तथा स्थायी सम्पति का एक ट्रस्ट समिति के अधीन है।
व्यवहार की गई वस्तुएं सभी के दर्शनार्थ समाधि स्थल पर ही संचित रखी गई है। आज भी पुरूष तथा महिलायें आते है और मनौतियां मानते है। वस्तुतः अपार जन समूह को अपनी शुक्त से प्रेरित करने वाली साहू वंश उजागर भानुमति को भानेश्वरी देवी के रूप में विख्यात करने वाली अवश्य कोई शक्ति थी जिसकी अलौकिकता के कारण ही लोग मोहित थे। अतः यह निश्चित धारना बन जाती है कि भानुमति साहू से देवी भानेश्वरी
जी या माता जी के रूप में विख्यात होने वाला अवश्य ही अलौकिक शक्ति की अधिकारणी थी चाहे वह दुर्गा की ओर उन्मुख हो अथवा अन्य देवी की ओर।