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10 साल बाद फांसी की सजा से बरी: सुप्रीम कोर्ट ने किया चौंकाने वाला खुलासा, पुलिस ने पेश किए थे फर्जी सबूत

बलात्कार और हत्या के मामले में फांसी की सजा पा चुके युवक को सुप्रीम कोर्ट ने दी बड़ी राहत, पुलिस पर लगे गंभीर आरोप—फर्जी सबूत और गलत जांच ने छीने 10 साल

नई दिल्ली, 8 अप्रैल 2025:
भारतीय न्याय व्यवस्था में सोमवार को एक ऐतिहासिक फैसला सामने आया, जब सुप्रीम कोर्ट ने एक युवक को फांसी की सजा से बरी कर दिया। यह वही युवक है जिसने बीते 10 वर्षों से मौत की सजा का इंतज़ार करते हुए जेल की सलाखों के पीछे अपनी ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा गुजार दिया। कोर्ट ने कहा कि पुलिस ने मामले की जांच के दौरान न केवल लापरवाही बरती बल्कि साक्ष्यों को गढ़ा भी गया, जिससे एक निर्दोष व्यक्ति को बलात्कार और हत्या जैसे संगीन अपराधों में फंसा दिया गया।breaking news

क्या था मामला?
यह मामला एक नाबालिग लड़की के बलात्कार और हत्या से जुड़ा था, जिसमें आरोपी को निचली अदालत और हाई कोर्ट से फांसी की सजा मिली थी। लेकिन जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो अदालत ने जांच के तरीके, सबूतों की वैधता और पुलिस की भूमिका पर गहनता से विचार किया।

सुप्रीम कोर्ट की कड़ी टिप्पणी
सुनवाई के दौरान जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस वी वी भट्ट की पीठ ने पाया कि पुलिस ने जानबूझकर सबूतों के साथ छेड़छाड़ की और डीएनए रिपोर्ट जैसी अहम फॉरेंसिक जानकारी को दबाया। अदालत ने कहा कि “ऐसी जांच न केवल एक निर्दोष को सज़ा देती है, बल्कि असली अपराधी को खुला छोड़ देती है।”

पुलिस पर फर्जी सबूत पेश करने का आरोप
कोर्ट के मुताबिक, इस मामले में पुलिस ने जिस गवाह को प्रमुख बनाया, उसकी गवाही अस्थिर और संदिग्ध पाई गई। इसके अलावा घटनास्थल से मिले सबूतों में डीएनए या फिंगरप्रिंट आरोपी से मेल नहीं खा रहे थे, फिर भी पुलिस ने इन तथ्यों को छुपाया।

10 साल की कैद, परिवार की बर्बादी
आरोपी की ओर से बहस करते हुए वकील ने बताया कि उनके मुवक्किल ने 10 साल जेल में मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना सही, जबकि असली दोषी खुलेआम घूम रहा है। इस दौरान उसके परिवार की आर्थिक स्थिति खराब हो गई और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा।crime

अब क्या होगा?
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद आरोपी को तत्काल रिहा कर दिया गया है। वहीं कोर्ट ने केंद्र सरकार से इस बात पर रिपोर्ट मांगी है कि क्या झूठे मामलों में फंसे निर्दोषों को मुआवज़ा दिया जाना चाहिए। इसके अलावा दोषी पुलिस अधिकारियों पर भी कार्रवाई की सिफारिश की गई है।

न्यायिक प्रणाली के लिए बड़ा सबक
यह फैसला भारतीय न्यायिक व्यवस्था के लिए एक चेतावनी है कि यदि जांच निष्पक्ष और वैज्ञानिक आधारों पर न की जाए, तो इससे न

स फैसले ने केवल निर्दोष फंस सकते हैं बल्कि समाज का कानून पर से भरोसा भी उठ सकता है।

निष्कर्ष:कई सवाल खड़े कर दिए हैं—क्या हमारे कानून की निगरानी पर्याप्त है? क्या पुलिस की जवाबदेही तय होनी चाहिए? और सबसे अहम, क्या ऐसे मामलों में मुआवज़ा एक समाधान हो सकता है?

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